Wednesday, September 8, 2010
Man Kunto Maula at Sufi Dargah in Sarnath, India
Thursday, September 2, 2010
Interviews with Sunil and Chitra Sahasrabudhey, Vidya Ashram, Sarnath, India
Sunilji elaborates on his concept of the "bahishkrit samaj," the externed society, i.e that vast majority of India society which did not find a place in the new colonial society and continues to be the "informal economy" today. He also talks about the concept of lokavidya (knowledge among the people) and its relationship to radical politics today.
Chitraji discusses feminism from the bahishkrit pespective and also talks about the relationship between lokavidya and the local market.
Again all the videos are cataloged here.
Monday, August 16, 2010
महंगाई समाज में गैर-बराबरी बढ़ाती है (Inflation increases inequality in society)
महंगाई समाज में गैर-बराबरी बढ़ाती है
पिछले कुछ सालों से दाल, चावल, चीनी और दूध जैसी जीवनावश्यक वस्तुओं की कीमतों में तेज़ बढौतरी की वजह से देश की आम जनता बहुत परेशान है. महंगाई के इर्द-गिर्द विपक्ष ने अपनी राजनीति खड़ी करने की काफी कोशिश की है. महंगाई के मुद्दे को लेकर यू पी ऐ सरकार के खिलाफ वाम दल भारतीय जनता पार्टी के साथ एक मंच पर खड़े दिखायी पड़े. आखिर महंगाई क्या है और समाज के विभिन्न वर्गों पर इस का क्या असर पड़ता है? आइये इस पर एक नज़र डालें.
महंगाई यानी बाज़ार में बिकने वाली चीजों के दाम में वृद्धि. इस वृद्धि के कई कारण हो सकते हैं. जब तेल जैसी वस्तु महँगी होती है तो इसका परिणाम बाज़ार की लग-भाग हर वस्तु पर पड़ता है क्यूंकि तेल का उपयोग हर चीज़ के वितरण में होता है, और इंधन के रूप में यह कई वस्तुओं के निर्माण में भी आवश्यक होता है. महंगाई की एक और आम वजह है. जब आर्थिक विकास बहुत तेज़ गति से होता है, तो समाज का वह तबका जो विकास का लाभ उठा रहा है, ज़्यादा पैसा खर्च करने की क्षमता पा जाता है. इस तबके की बढती हुई मांग अगर आपूर्ति से ज़्यादा हुई तो दाम बढ़ते हैं और महंगाई का दौर शुरू होता है. इसके अलावा किसी विशेष वस्तु के दाम में बढौतरी की और भी वजहें हो सकती हैं. जैसे खाद्य वस्तुओं का ही उदहारण ले लीजिये. इसके पीछे सरकार की निति और शेयर बाज़ार की सट्टेबाजी का भी हाथ था. सरकार ने आर्थिक उदारीकरण के नाम पर बहुराष्ट्रीय और अन्य बड़े निगमों को स्टॉक मार्केट पर जीवनावश्यक वस्तुओं में व्यापार करने की छूट दे दी और इस सट्टेबाजी का नतीजा सामने है.
महंगाई के सरकारी आकडे पूरा सच नहीं बताते क्यूंकि यह आंकड़े कई वस्तुओं की औसत कीमत में वृद्धि को दर्शाते हैं, और यह बात छुपाते हैं कि जीवनावश्यक वस्तुओं की कीमतें अन्य कीमतों के मुकाबले बहुत तेज़ी से बढ़ी हैं. उदहारण के तौर पर पिछले साल सरकारी आंकड़ो के अनुसार महंगाई केवल ३ % थी जबकि उसी दौरान खाद्य पदार्थों के भाव २०% बढे. और सबसे महत्वपूर्ण दम, श्रम का दाम (यानी आय या मजदूरी) नहीं बढ़ी है. अगर हर चीज़ के दाम में एक जैसे वृद्धि होती है, तो इसका जीवन स्तर पर कोई ख़ास असर नहीं होता. यानी अगर आटे-दाल के भाव के साथ-साथ मजदूरी या वेतन भी उतनी ही तेज़ी से बढे तो इसका कोई परिणाम नहीं होगा. दाल का भाव दुगना हुआ और साथ ही साथ मजदूरी भी दुगनी हुई, तो कोई परेशानी की बात नहीं. लेकिन ऐसा नहीं होता. हमारे देश की अधिकांश जनता जो लोकविद्याधर हैं, फिर वह किसान हो, कारीगर हो, छोटे धंधे वाले हो, इनकी आय सरकारी या अन्य संघठित उद्योगों में पाए जाने वाले वेतन कि तरह महंगाई के हिसाब से अपने-आप नहीं बढती. हाल में जो महंगाई का दौर चला है उसमे एक साल में डालें, दूध, चावल, फल आदि की कीमतों ने तो आस्मां छु लिया है (पांच साल में ४०-८० प्रतिशत बढौतरी) पर किसानों, कारीगरों, और मजदूरों की आय में बढौतरी नहीं के बराबर हुई है. बल्कि कई जगहों पर, जैसे हथकरघा उद्योग में और किसानी में, आय या मजदूरी घटी है. जब मजदूरी घटती है और कीमतें बढती हैं, तो बाज़ार जाने वाले को दुगना सदमा पहुँचता है.
मगर समस्या केवल यहाँ तक सिमित नहीं है. महंगाई के दुष्परिणाम सब पर एक सामान नहीं पड़ते. महंगाई न सिर्फ तमाम लोकाविद्याधर समाज का जीवन स्तर घटाती है, बल्कि गैर-बराबरी भी बढ़ाती है. इसका असर अमीरों और मध्यम वर्गियों से ज़्यादा गरीबों पर पड़ता है. इसकी कई वजहें हैं. जैसे हम पहले कह चुके हैं, माध्यम वर्ग के वेतन महंगाई के साथ बढ़ते हैं जबकि किसानों, कारीगरों और छोटे धन्धेवालों की आय में वृद्धि हो यह ज़रूरी नहीं है. एक और वजह यह है की पैसेवालों के मुकाबले गरीब अपने धन का बड़ा हिस्सा नगद के रूप में रखता है, और पूँजी निवेश नहीं करता (जैसे शेयर, ज़मीन, अन्य संपत्ति आदि). महंगाई की वजह से रुपये की कीमत (उसकी चीज़ें खरीदने की क्षमता) घटती है, और जिनकी बचत अन्य किसी रूप के मुकाबले नगद रुपये में ज़्यादा है, वे इससे अधिक प्रभावित होते हैं. तीसरी बात ये है की आम आदमी के बजट में खाद्य पदार्थों (आता, दाल, चावल, चीनी, दूध, सब्जी, फल) की अहमियत, पैसेवालों के बजट के मुकाबले बहुत जयादा है. इस लिए जब इन चीज़ों के दाम अन्य चीज़ों के मुकाबले ज़्यादा तेज़ी से बढ़ते है (जैसे कि पिछले कुछ सालों से लगातार हो रहा है) तो इसका दुष्परिणाम गरीब ही ज़्यादा महसूस करता है. एक और बात भी है. बाज़ार में खरीदनेवाले के लिए जो खर्च है, बेचनेवाले के लिए वही आय है, और अगर तैयार माल की कीमत बढ़ी मगर मजदूरी (जो लागत का हिस्सा है) वह नहीं बढ़ी तो इसमें मजदूर का नुकसान और मालिक का फायदा है. इसलिए महंगाई खरीदनेवालों से बेचनेवालों, मजदूरों से मालिकों, और गरीबों से अमीरों तक आय का पुनर्वितरण करती है. कई विकासशील देशों का अध्ययन करने के बाद अर्थशास्त्री इस नतीजे पर पहुंचे हैं, के इन सारी वजहों से महंगाई समाज में गैरबराबरी बढ़ा सकती है.
एक बात यहाँ कहना मुनासिब होगा. अगर अन्न बेचनेवालों का महंगाई की वजह से फायदा हो रहा है तो क्या महंगाई किसानों के लिए अच्छी है? बिलकुल नहीं. पहली बात यह है की कई किसान, जैसे गन्ने के किसान, प्याज, कपास आदि जैसे नगद की फसल करने वाले किसान दाल, चावल, सब्जी, किसी भी अन्य उपभोगता जैसे बाज़ार से ही खरीदते हैं. अगर उनके फसल की कीमत आटे-दाल-चीनी जितनी नहीं बढती तो उन्हें भी महंगाई से नुकसान ही होता है. दूसरी बात ये है की जिन किसानों की फसलों के भाव बाज़ार में बेतहाशा बढे हैं, उन्हें इस बढौतरी का लाभ नहीं पहुंचा है. किसान को मिलने वाली कीमत और फुटकर कीमत में का अंतर लगातार बढ़ा है, और इसका फायदा व्यापारियों को हुआ है. नतीजा ये सामने आता है की आम जनता दोनों तरफ से मार खा रही है.
तो क्या यह संभव है कि महंगाई बिलकुल हो ही न? क्या कीमतें ज्यों-की-त्यों रहनी चाहियें? ऐसा सोचने में भी दिक्कत है. हमारी अर्थव्यवस्था एक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था है, जिसमे समाज के अनगिनत अंतर्विरोधों का आर्थिक विकास के ज़रिये ही प्रबंधन किया जाता है. और जहाँ आर्थिक विकास हो रहा है, वहां महंगाई तो रहेगी. अगर सरकार रोज़गार बढ़ाना चाहती है, तो इस पूंजीवादी व्यवस्था के तहत उसका ऐसा करना महंगाई को भी बढ़ाएगा. इसकी एक वजह यह है की रोज़गार बढ़ने पर मजदूरी या आय भी बढ़ती है, और मुनाफे का दर कायम रखने के लिए वस्तुओं की कीमतें भी बढती हैं. लेकिन इस पूंजीवादी ढांचे के अन्दर भी यह सवाल तो उठना ही चाहिए की कौनसी चीज़ें महँगी हो रही हैं? जीवनावश्यक वस्तुओं के मुकाबले आराम की वस्तुएं महँगी हो तो हर्ज नहीं है. दूसरी बड़ी बात यह है की संघठन के मार्फ़त असंघठित लोकाविद्याधर समाज को महंगाई के मुकाबले अपनी आय बढाने की लगातार कोशिश करनी होगी. वरना महंगाई गरीबों को मारेगी और महंगाई घटाने को लिए गए सरकारी कदम भी उन्हें परेशानी में ही डालेंगे.
अमित बसोले
गरीबी नहीं गैरबराबरी की वार्ता चाहिए (We need a public discourse on inequality, not on poverty)
An article I wrote for the July issue is below in its unedited version.
गरीबी नहीं, गैरबराबरी की वार्ता चाहिए
वैश्वीकरण और नयी आर्थिक निति के चलते देश में गरीबी बढ़ी है या घटी है इस पर अर्थशास्त्री लगातार बहस करते दिखाई पड़ते हैं. गरीबी घटी है सिद्ध करने के लिए यह आंकड़ा दिखाया जाता है की १९९३-९४ में देश की ३०% आबादी गरीबी रेखा के नीचे थी जबकि २००४-०५ तक यह संख्या घट कर लगभग २१% हो चुकी थी. लेकिन यह "गरीबी रेखा" (रुपये ११ प्रति दिन प्रति व्यक्ति खर्च कर पाना) इतनी बेमतलब है की सरकार की ही एक कमिशन (अर्जुन सेनगुप्ता कमिशन) ने हाल ही में जारी की गयी रिपोर्ट में इस बात पर जोर दिया है की अगर इस रेखा को हम २० रुपये प्रति दिन प्रति व्यक्ति तक ले आयें तो देश की ७७% आबादी गरीब कहलाएगी. साथ ही साथ इस रिपोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया की महज़ ७% लोग सरकारी अथवा निजी नौकरियों में महीने के अनुसार नियमित वेतन पाते हैं. बाकी ९३% असंघठित क्षेत्र में हैं और उनकी आय या रोज़गार की कोई गारंटी नहीं होती है. इस ९३% में शामिल हैं सारे किसान, कारीगर, छोटे दुकानदार, महिलाऐं, यानी वह तमाम लोकाविद्याधर जो अपने ज्ञान और हुनर के बल पर जीविका चलते हैं और इस पूरे समाज की नीव डालते हैं. सेनगुप्ता कमीशन का यह एलान की देश के ७७% लोग मात्र २० रुपये या उससे कम में जीविका चलाते हैं, आर्थिक विकास दर के दीवाने शासन-प्रशासन में किसी को रास नहीं आया है और इस भयंकर सच्चाई लो लेकर कदम उठाना तो दूर, अप्रैल २००९ में पूरी की गयी इस रिपोर्ट को औपचारिक तौर पर प्रधान मंत्री के दफ्तर में स्वीकार तक नहीं किया गया है.
सेनगुप्ता रिपोर्ट "इंडिया शायनिंग" की सच्चाई क्या है इस बात को तो उजागर करता है, लेकिन वैश्वीकरण के युग की सबसे बड़ी "उपलब्धि," तेज़ गति से बढती आर्थिक विषमता, को नहीं छूता. देश में गरीबी की तो लगातार वार्ता होती रहती है. लेकिन इस वार्ता का फायदा गरीबों को नहीं बल्कि उसके अमीर तबके को होता है. क्यूंकि जितनी ज़्यादा बात गरीबी की होगी उतना ही गैरबराबरी से ध्यान हटाया जा सकता है. वार्ता में यह बात लाना ज़रूरी है की जहाँ एक ओर तीन चौथाई आबादी अत्यंत गरीब है, वहीँ भारत "डालर अरबपतियों" (जिनकी संपत्ति सौ करोड़ डालर है) की गिनती में दुनिया में ५ नंबर पर पहुँच गया है. महज़ दो सालों (२००७ से २००९) में डालर अरबपतियों की संख्या २५ से बढ़कर ५० हो गयी है. ब्रिटेन और कैनाडा जैसे विकसित देशों को भी हमने इस मामले में पीछे छोड़ दिया है. गरीबी बढ़ी हो चाहे घटी हो, इसमें कोई दो राय नहीं है की नयी आर्थिक निति के चलते गैरबराबरी हद से ज़्यादा बढ़ चुकी है. और यह न सिर्फ भारत में बल्कि दुनिया के कई छोटे-बड़े देशों में हुआ है. जितनी आर्थिक विषमता अमरीका में १९३० में थी, आज फिर उतनी ही है. जो थोड़े-बहुत फायदे इस दौरान अमरीका की आम जनता को हुए थे, वे उदारीकरण और बाजारीकरण के ज़रिये वापस ले लिए गए हैं.
वैश्वीकरण जहाँ जाता है, अपने साथ आर्थिक विषमता लाता है. १९९०-९१ के बाद भारत में भी गैरबराबरी बढती चली जा रही है. उधारण के तौर पर अस्सी के दशक में सबसे अमीर १% लोगों के पास देश की ५% संपत्ति थी. सन २००० के आते आते यह बढ़ कर १०% बन चुकी थी. आज भारत के सबसे अमीर १०% लोगों के हाथों में उतनी ही संपत्ति है जितनी बाकि के सारे (९०%) लोगों की कुल मिला कर है. यानी चंद शहरों में रहने वाले सरकारी या निजी नौकरियां करने वाले कर्मचारी अथवा कारोबार करने वाले पूंजीपति एक तरफ, और देश की सारी जनता दूसरी तरफ. गाँव की हालत अलग से देखि जाए तो वह और भी बुरी है. वैश्वीकरण के चलते शहर के माध्यम और उच्च वर्गियों को जो फायदा हुआ है वह तो इस बात में साफ़ दिखाई देता है की वे अब पहले से ४०% ज़्यादा खर्च करने की क्षमता रखते हैं. और इस नए खर्चिलेपन का कुच्छ लाभ शहरों के गरीबों को मिल भी सकता है. लेकिन गाँव की ८०% आबादी (यानी देश के बहुसंख्य लोग) पहले से कम खर्च कर पा रही है. यानी शुद्ध और तुलनात्मक नज़रिए दोनों से ही गाँव और भी अधिक गरीब हुआ है.
अगर उपरोक्त आंकड़े कुछ अजनबी से दिखाई पड़ते हैं तो उन आंकड़ों की तरफ देखें जिनसे हम सब भली भांति परिचित हैं. असंघठित क्षेत्र में काम करने वाले तमाम कारीगर मुश्किल से १००-२०० रुपये रोज़ कमा पाते हैं. महिला कारीगरों को १०० रुपये रोज़ भी नसीब नहीं हैं और ५०-६० रुपये रोज़ में गुज़ारा करना पड़ता है. दूसरी और निचले तबके के सरकारी कर्मचारी भी ४००-५०० रुपये रोज़ (१० से १५ हज़ार महिना) कमा लेते हैं. और १०००-२००० रुपये रोज़ महानगरों के आफिसों में काम करने वालों के लिए कोई बड़ी बात नहीं है. अगर हम किसी से पूंछे के ऐसा क्यों है तो यह जवाब अक्सर मिलेगा की ऐसा इसलिए है की किसान और कारीगर पढ़े-लिखे नहीं होते हैं. जब यह बात कही जाती है तो इसका मतलब यह होता है की किसान और कारीगर विद्या, नारी विद्या समाज में तिरस्कृत है, इस विद्या को विद्या ही नहीं समझा जता है. वर्ना क्या हमारे किसान और कारीगर स्कूल-कालेज में पढ़े लिखे लोगों से कम हुनर और जानकारी रखते हैं? उनके श्रम और ज्ञान की कीमत इतनी कम क्यूँ कर दी गयी है की एक कुशल बुनकर को बिनकारी के मुकाबले मनरेगा में मिट्टी फेंकने से ज़्यादा कमाई होती है? और इसे अर्थशास्त्री और आर्थिक नीतियाँ बनाने वाले एक प्रगतिशील कदम भी मानते हैं!
यह बात अब बिलकुल साफ़ हो चुकी है की उदारीकरण किसानों, कारीगरों, छोटे दुकानदारों, महिलाओं, यानी सारे लोकाविद्याधर समाज को नए सिरे से उजाड़ने का कार्यक्रम है. बड़े शहरों में रहनेवाली देश की १०% आबादी की चकाचौन्द लगातार मीडिया में दिखाने से यह बात कितने समय तक छुपी रह सकती है की ९०% लोगों की ज़िन्दगी बढती गैरबराबरी की वजह से और भी बदतर होती जा रही है? गरीबी रेखा के नीचे रहनेवालों की घटती संख्या दिखा कर हमें फुसलाया नहीं जा सकता. अगर इस देश में सभी बराबर के नागरिक हैं तो सारे राष्ट्रीय संसाधनों जैसे शिक्षा, स्वस्थ्य, बिजली, वित्त, बाज़ार, में सब का बराबर का अधिकार है. जिसको दो वक़्त का खाना भी नहीं मिलता उसे दो वक़्त खाना दे दिया जाए तो गरीबी हटाने का दवा हम कर सकते हैं. लेकिन हम इंसानों की बात कर रहे हैं, जानवरों की नहीं. और इंसान को सिर्फ खाने की नहीं, बल्कि, शिक्षा, स्वस्थ, मनोरजन, काम, बाज़ार, सभी की ज़रुरत है. अगर हम केवल गरीबी की बात करते रहेंगे तो कभी यह सवाल नहीं उठा पाएंगे की जो ज़रूरतें बड़े शहरों के वासियों की हैं क्या वही ज़रूरतें गांववासियों की नहीं हैं? शाम के वक़्त पढाई, मनोरंजन आदि की लिय बिजली की जितनी ज़रुरत एक शहरी को है क्या उतनी ही एक गांववासी को नहीं है? गैरबराबरी का सवाल केवल आय या संपत्ति के बटवारे तक ही सिमित नहीं है, बल्कि इसके ऐसे कई आयाम हैं. इस लेखों की शंखला में हम इन आयामों को उजागर करने का प्रयास करेंगे।
अमित बसोले
Monday, July 26, 2010
Subverting Our Epics: Mani Ratnam's Retelling of the Ramayana
Mani Ratnam’s film Raavan depicts the contradiction between the adivasis and the State through the framework of the Ramayana. The film, however, deviates from the message of the Ramayana, and raises the disturbing possibility that our myths of morality and bravery are someone else’s stories of rape and conquest. The recasting of Raavan as the wronged subaltern and Ram as the scheming agent of imperialism brings to mind similar reinterpretations of other Hindu legends by Phule, which completely subvert the orthodox interpretation. In the context of the ongoing struggle between the tribals and the State, one hopes that the movie Raavan might stir this debate up once again. View Full Article
Saturday, April 10, 2010
Knowledge Satyagraha: Towards a People’s Knowledge Movement
Amit Basole (IN) Knowledge Satyagraha: Towards a People’s Knowledge Movement from network cultures on Vimeo.
The Almond Workers of Karawal Nagar, Delhi: A Report
The Almond Workers of Karawal Nagar, Delhi: A Report
Dantewada, Dec 14th to 17th 2009: Three days in the cauldron, on the eve of the Padyatra
A couple of my recent travel reports were published on sanhati.com. One on my experience of visiting Himanshu Kumar's Vanavasi Chetna Ashram in Dantewada (the site of the latest battle between the Maoists and the CRPF) is available here:
Dantewada, Dec 14th to 17th 2009: Three days in the cauldron, on the eve of the Padyatra
Here is an audio recording of a press conference on the Maoist issue held in the Raipur Press Club by HImanshu Kumar, Sandeep Pandey (NAPM), and Rajendra Saiil (PUCL-Chhattisgarh):
Press Conference on Dantewada, Raipur, Dec. 17, 2009 from amit basole on Vimeo.