Vidya Ashram, Sarnath, Varanasi, India has recently started publishing a Hindi monthly with the aim of offering analysis, commentary and new from the point of view of a people's knowledge movement. The paper is called Lokavidya Panchayat and issues will be available here.
An article I wrote for the July issue is below in its unedited version.
गरीबी नहीं, गैरबराबरी की वार्ता चाहिए
वैश्वीकरण और नयी आर्थिक निति के चलते देश में गरीबी बढ़ी है या घटी है इस पर अर्थशास्त्री लगातार बहस करते दिखाई पड़ते हैं. गरीबी घटी है सिद्ध करने के लिए यह आंकड़ा दिखाया जाता है की १९९३-९४ में देश की ३०% आबादी गरीबी रेखा के नीचे थी जबकि २००४-०५ तक यह संख्या घट कर लगभग २१% हो चुकी थी. लेकिन यह "गरीबी रेखा" (रुपये ११ प्रति दिन प्रति व्यक्ति खर्च कर पाना) इतनी बेमतलब है की सरकार की ही एक कमिशन (अर्जुन सेनगुप्ता कमिशन) ने हाल ही में जारी की गयी रिपोर्ट में इस बात पर जोर दिया है की अगर इस रेखा को हम २० रुपये प्रति दिन प्रति व्यक्ति तक ले आयें तो देश की ७७% आबादी गरीब कहलाएगी. साथ ही साथ इस रिपोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया की महज़ ७% लोग सरकारी अथवा निजी नौकरियों में महीने के अनुसार नियमित वेतन पाते हैं. बाकी ९३% असंघठित क्षेत्र में हैं और उनकी आय या रोज़गार की कोई गारंटी नहीं होती है. इस ९३% में शामिल हैं सारे किसान, कारीगर, छोटे दुकानदार, महिलाऐं, यानी वह तमाम लोकाविद्याधर जो अपने ज्ञान और हुनर के बल पर जीविका चलते हैं और इस पूरे समाज की नीव डालते हैं. सेनगुप्ता कमीशन का यह एलान की देश के ७७% लोग मात्र २० रुपये या उससे कम में जीविका चलाते हैं, आर्थिक विकास दर के दीवाने शासन-प्रशासन में किसी को रास नहीं आया है और इस भयंकर सच्चाई लो लेकर कदम उठाना तो दूर, अप्रैल २००९ में पूरी की गयी इस रिपोर्ट को औपचारिक तौर पर प्रधान मंत्री के दफ्तर में स्वीकार तक नहीं किया गया है.
सेनगुप्ता रिपोर्ट "इंडिया शायनिंग" की सच्चाई क्या है इस बात को तो उजागर करता है, लेकिन वैश्वीकरण के युग की सबसे बड़ी "उपलब्धि," तेज़ गति से बढती आर्थिक विषमता, को नहीं छूता. देश में गरीबी की तो लगातार वार्ता होती रहती है. लेकिन इस वार्ता का फायदा गरीबों को नहीं बल्कि उसके अमीर तबके को होता है. क्यूंकि जितनी ज़्यादा बात गरीबी की होगी उतना ही गैरबराबरी से ध्यान हटाया जा सकता है. वार्ता में यह बात लाना ज़रूरी है की जहाँ एक ओर तीन चौथाई आबादी अत्यंत गरीब है, वहीँ भारत "डालर अरबपतियों" (जिनकी संपत्ति सौ करोड़ डालर है) की गिनती में दुनिया में ५ नंबर पर पहुँच गया है. महज़ दो सालों (२००७ से २००९) में डालर अरबपतियों की संख्या २५ से बढ़कर ५० हो गयी है. ब्रिटेन और कैनाडा जैसे विकसित देशों को भी हमने इस मामले में पीछे छोड़ दिया है. गरीबी बढ़ी हो चाहे घटी हो, इसमें कोई दो राय नहीं है की नयी आर्थिक निति के चलते गैरबराबरी हद से ज़्यादा बढ़ चुकी है. और यह न सिर्फ भारत में बल्कि दुनिया के कई छोटे-बड़े देशों में हुआ है. जितनी आर्थिक विषमता अमरीका में १९३० में थी, आज फिर उतनी ही है. जो थोड़े-बहुत फायदे इस दौरान अमरीका की आम जनता को हुए थे, वे उदारीकरण और बाजारीकरण के ज़रिये वापस ले लिए गए हैं.
वैश्वीकरण जहाँ जाता है, अपने साथ आर्थिक विषमता लाता है. १९९०-९१ के बाद भारत में भी गैरबराबरी बढती चली जा रही है. उधारण के तौर पर अस्सी के दशक में सबसे अमीर १% लोगों के पास देश की ५% संपत्ति थी. सन २००० के आते आते यह बढ़ कर १०% बन चुकी थी. आज भारत के सबसे अमीर १०% लोगों के हाथों में उतनी ही संपत्ति है जितनी बाकि के सारे (९०%) लोगों की कुल मिला कर है. यानी चंद शहरों में रहने वाले सरकारी या निजी नौकरियां करने वाले कर्मचारी अथवा कारोबार करने वाले पूंजीपति एक तरफ, और देश की सारी जनता दूसरी तरफ. गाँव की हालत अलग से देखि जाए तो वह और भी बुरी है. वैश्वीकरण के चलते शहर के माध्यम और उच्च वर्गियों को जो फायदा हुआ है वह तो इस बात में साफ़ दिखाई देता है की वे अब पहले से ४०% ज़्यादा खर्च करने की क्षमता रखते हैं. और इस नए खर्चिलेपन का कुच्छ लाभ शहरों के गरीबों को मिल भी सकता है. लेकिन गाँव की ८०% आबादी (यानी देश के बहुसंख्य लोग) पहले से कम खर्च कर पा रही है. यानी शुद्ध और तुलनात्मक नज़रिए दोनों से ही गाँव और भी अधिक गरीब हुआ है.
अगर उपरोक्त आंकड़े कुछ अजनबी से दिखाई पड़ते हैं तो उन आंकड़ों की तरफ देखें जिनसे हम सब भली भांति परिचित हैं. असंघठित क्षेत्र में काम करने वाले तमाम कारीगर मुश्किल से १००-२०० रुपये रोज़ कमा पाते हैं. महिला कारीगरों को १०० रुपये रोज़ भी नसीब नहीं हैं और ५०-६० रुपये रोज़ में गुज़ारा करना पड़ता है. दूसरी और निचले तबके के सरकारी कर्मचारी भी ४००-५०० रुपये रोज़ (१० से १५ हज़ार महिना) कमा लेते हैं. और १०००-२००० रुपये रोज़ महानगरों के आफिसों में काम करने वालों के लिए कोई बड़ी बात नहीं है. अगर हम किसी से पूंछे के ऐसा क्यों है तो यह जवाब अक्सर मिलेगा की ऐसा इसलिए है की किसान और कारीगर पढ़े-लिखे नहीं होते हैं. जब यह बात कही जाती है तो इसका मतलब यह होता है की किसान और कारीगर विद्या, नारी विद्या समाज में तिरस्कृत है, इस विद्या को विद्या ही नहीं समझा जता है. वर्ना क्या हमारे किसान और कारीगर स्कूल-कालेज में पढ़े लिखे लोगों से कम हुनर और जानकारी रखते हैं? उनके श्रम और ज्ञान की कीमत इतनी कम क्यूँ कर दी गयी है की एक कुशल बुनकर को बिनकारी के मुकाबले मनरेगा में मिट्टी फेंकने से ज़्यादा कमाई होती है? और इसे अर्थशास्त्री और आर्थिक नीतियाँ बनाने वाले एक प्रगतिशील कदम भी मानते हैं!
यह बात अब बिलकुल साफ़ हो चुकी है की उदारीकरण किसानों, कारीगरों, छोटे दुकानदारों, महिलाओं, यानी सारे लोकाविद्याधर समाज को नए सिरे से उजाड़ने का कार्यक्रम है. बड़े शहरों में रहनेवाली देश की १०% आबादी की चकाचौन्द लगातार मीडिया में दिखाने से यह बात कितने समय तक छुपी रह सकती है की ९०% लोगों की ज़िन्दगी बढती गैरबराबरी की वजह से और भी बदतर होती जा रही है? गरीबी रेखा के नीचे रहनेवालों की घटती संख्या दिखा कर हमें फुसलाया नहीं जा सकता. अगर इस देश में सभी बराबर के नागरिक हैं तो सारे राष्ट्रीय संसाधनों जैसे शिक्षा, स्वस्थ्य, बिजली, वित्त, बाज़ार, में सब का बराबर का अधिकार है. जिसको दो वक़्त का खाना भी नहीं मिलता उसे दो वक़्त खाना दे दिया जाए तो गरीबी हटाने का दवा हम कर सकते हैं. लेकिन हम इंसानों की बात कर रहे हैं, जानवरों की नहीं. और इंसान को सिर्फ खाने की नहीं, बल्कि, शिक्षा, स्वस्थ, मनोरजन, काम, बाज़ार, सभी की ज़रुरत है. अगर हम केवल गरीबी की बात करते रहेंगे तो कभी यह सवाल नहीं उठा पाएंगे की जो ज़रूरतें बड़े शहरों के वासियों की हैं क्या वही ज़रूरतें गांववासियों की नहीं हैं? शाम के वक़्त पढाई, मनोरंजन आदि की लिय बिजली की जितनी ज़रुरत एक शहरी को है क्या उतनी ही एक गांववासी को नहीं है? गैरबराबरी का सवाल केवल आय या संपत्ति के बटवारे तक ही सिमित नहीं है, बल्कि इसके ऐसे कई आयाम हैं. इस लेखों की शंखला में हम इन आयामों को उजागर करने का प्रयास करेंगे।
अमित बसोले
Sheikh Hasina Government: A Record of Corruption and Oppression
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By Kallol Mustafa. This article appeared in the webzine Sarbojonkatha
Through a mass uprising of students and the public, the highly corrupt and
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