Monday, August 16, 2010

महंगाई समाज में गैर-बराबरी बढ़ाती है (Inflation increases inequality in society)

Another article (unedited version) written for Vidya Ashram's Hindi monthly Lokavidya Panchayat.


महंगाई समाज में गैर-बराबरी बढ़ाती है

पिछले कुछ सालों से दाल, चावल, चीनी और दूध जैसी जीवनावश्यक वस्तुओं की कीमतों में तेज़ बढौतरी की वजह से देश की आम जनता बहुत परेशान है. महंगाई के इर्द-गिर्द विपक्ष ने अपनी राजनीति खड़ी करने की काफी कोशिश की है. महंगाई के मुद्दे को लेकर यू पी ऐ सरकार के खिलाफ वाम दल भारतीय जनता पार्टी के साथ एक मंच पर खड़े दिखायी पड़े. आखिर महंगाई क्या है और समाज के विभिन्न वर्गों पर इस का क्या असर पड़ता है? आइये इस पर एक नज़र डालें.

महंगाई यानी बाज़ार में बिकने वाली चीजों के दाम में वृद्धि. इस वृद्धि के कई कारण हो सकते हैं. जब तेल जैसी वस्तु महँगी होती है तो इसका परिणाम बाज़ार की लग-भाग हर वस्तु पर पड़ता है क्यूंकि तेल का उपयोग हर चीज़ के वितरण में होता है, और इंधन के रूप में यह कई वस्तुओं के निर्माण में भी आवश्यक होता है. महंगाई की एक और आम वजह है. जब आर्थिक विकास बहुत तेज़ गति से होता है, तो समाज का वह तबका जो विकास का लाभ उठा रहा है, ज़्यादा पैसा खर्च करने की क्षमता पा जाता है. इस तबके की बढती हुई मांग अगर आपूर्ति से ज़्यादा हुई तो दाम बढ़ते हैं और महंगाई का दौर शुरू होता है. इसके अलावा किसी विशेष वस्तु के दाम में बढौतरी की और भी वजहें हो सकती हैं. जैसे खाद्य वस्तुओं का ही उदहारण ले लीजिये. इसके पीछे सरकार की निति और शेयर बाज़ार की सट्टेबाजी का भी हाथ था. सरकार ने आर्थिक उदारीकरण के नाम पर बहुराष्ट्रीय और अन्य बड़े निगमों को स्टॉक मार्केट पर जीवनावश्यक वस्तुओं में व्यापार करने की छूट दे दी और इस सट्टेबाजी का नतीजा सामने है.

महंगाई के सरकारी आकडे पूरा सच नहीं बताते क्यूंकि यह आंकड़े कई वस्तुओं की औसत कीमत में वृद्धि को दर्शाते हैं, और यह बात छुपाते हैं कि जीवनावश्यक वस्तुओं की कीमतें अन्य कीमतों के मुकाबले बहुत तेज़ी से बढ़ी हैं. उदहारण के तौर पर पिछले साल सरकारी आंकड़ो के अनुसार महंगाई केवल ३ % थी जबकि उसी दौरान खाद्य पदार्थों के भाव २०% बढे. और सबसे महत्वपूर्ण दम, श्रम का दाम (यानी आय या मजदूरी) नहीं बढ़ी है. अगर हर चीज़ के दाम में एक जैसे वृद्धि होती है, तो इसका जीवन स्तर पर कोई ख़ास असर नहीं होता. यानी अगर आटे-दाल के भाव के साथ-साथ मजदूरी या वेतन भी उतनी ही तेज़ी से बढे तो इसका कोई परिणाम नहीं होगा. दाल का भाव दुगना हुआ और साथ ही साथ मजदूरी भी दुगनी हुई, तो कोई परेशानी की बात नहीं. लेकिन ऐसा नहीं होता. हमारे देश की अधिकांश जनता जो लोकविद्याधर हैं, फिर वह किसान हो, कारीगर हो, छोटे धंधे वाले हो, इनकी आय सरकारी या अन्य संघठित उद्योगों में पाए जाने वाले वेतन कि तरह महंगाई के हिसाब से अपने-आप नहीं बढती. हाल में जो महंगाई का दौर चला है उसमे एक साल में डालें, दूध, चावल, फल आदि की कीमतों ने तो आस्मां छु लिया है (पांच साल में ४०-८० प्रतिशत बढौतरी) पर किसानों, कारीगरों, और मजदूरों की आय में बढौतरी नहीं के बराबर हुई है. बल्कि कई जगहों पर, जैसे हथकरघा उद्योग में और किसानी में, आय या मजदूरी घटी है. जब मजदूरी घटती है और कीमतें बढती हैं, तो बाज़ार जाने वाले को दुगना सदमा पहुँचता है.

मगर समस्या केवल यहाँ तक सिमित नहीं है. महंगाई के दुष्परिणाम सब पर एक सामान नहीं पड़ते. महंगाई न सिर्फ तमाम लोकाविद्याधर समाज का जीवन स्तर घटाती है, बल्कि गैर-बराबरी भी बढ़ाती है. इसका असर अमीरों और मध्यम वर्गियों से ज़्यादा गरीबों पर पड़ता है. इसकी कई वजहें हैं. जैसे हम पहले कह चुके हैं, माध्यम वर्ग के वेतन महंगाई के साथ बढ़ते हैं जबकि किसानों, कारीगरों और छोटे धन्धेवालों की आय में वृद्धि हो यह ज़रूरी नहीं है. एक और वजह यह है की पैसेवालों के मुकाबले गरीब अपने धन का बड़ा हिस्सा नगद के रूप में रखता है, और पूँजी निवेश नहीं करता (जैसे शेयर, ज़मीन, अन्य संपत्ति आदि). महंगाई की वजह से रुपये की कीमत (उसकी चीज़ें खरीदने की क्षमता) घटती है, और जिनकी बचत अन्य किसी रूप के मुकाबले नगद रुपये में ज़्यादा है, वे इससे अधिक प्रभावित होते हैं. तीसरी बात ये है की आम आदमी के बजट में खाद्य पदार्थों (आता, दाल, चावल, चीनी, दूध, सब्जी, फल) की अहमियत, पैसेवालों के बजट के मुकाबले बहुत जयादा है. इस लिए जब इन चीज़ों के दाम अन्य चीज़ों के मुकाबले ज़्यादा तेज़ी से बढ़ते है (जैसे कि पिछले कुछ सालों से लगातार हो रहा है) तो इसका दुष्परिणाम गरीब ही ज़्यादा महसूस करता है. एक और बात भी है. बाज़ार में खरीदनेवाले के लिए जो खर्च है, बेचनेवाले के लिए वही आय है, और अगर तैयार माल की कीमत बढ़ी मगर मजदूरी (जो लागत का हिस्सा है) वह नहीं बढ़ी तो इसमें मजदूर का नुकसान और मालिक का फायदा है. इसलिए महंगाई खरीदनेवालों से बेचनेवालों, मजदूरों से मालिकों, और गरीबों से अमीरों तक आय का पुनर्वितरण करती है. कई विकासशील देशों का अध्ययन करने के बाद अर्थशास्त्री इस नतीजे पर पहुंचे हैं, के इन सारी वजहों से महंगाई समाज में गैरबराबरी बढ़ा सकती है.

एक बात यहाँ कहना मुनासिब होगा. अगर अन्न बेचनेवालों का महंगाई की वजह से फायदा हो रहा है तो क्या महंगाई किसानों के लिए अच्छी है? बिलकुल नहीं. पहली बात यह है की कई किसान, जैसे गन्ने के किसान, प्याज, कपास आदि जैसे नगद की फसल करने वाले किसान दाल, चावल, सब्जी, किसी भी अन्य उपभोगता जैसे बाज़ार से ही खरीदते हैं. अगर उनके फसल की कीमत आटे-दाल-चीनी जितनी नहीं बढती तो उन्हें भी महंगाई से नुकसान ही होता है. दूसरी बात ये है की जिन किसानों की फसलों के भाव बाज़ार में बेतहाशा बढे हैं, उन्हें इस बढौतरी का लाभ नहीं पहुंचा है. किसान को मिलने वाली कीमत और फुटकर कीमत में का अंतर लगातार बढ़ा है, और इसका फायदा व्यापारियों को हुआ है. नतीजा ये सामने आता है की आम जनता दोनों तरफ से मार खा रही है.

तो क्या यह संभव है कि महंगाई बिलकुल हो ही न? क्या कीमतें ज्यों-की-त्यों रहनी चाहियें? ऐसा सोचने में भी दिक्कत है. हमारी अर्थव्यवस्था एक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था है, जिसमे समाज के अनगिनत अंतर्विरोधों का आर्थिक विकास के ज़रिये ही प्रबंधन किया जाता है. और जहाँ आर्थिक विकास हो रहा है, वहां महंगाई तो रहेगी. अगर सरकार रोज़गार बढ़ाना चाहती है, तो इस पूंजीवादी व्यवस्था के तहत उसका ऐसा करना महंगाई को भी बढ़ाएगा. इसकी एक वजह यह है की रोज़गार बढ़ने पर मजदूरी या आय भी बढ़ती है, और मुनाफे का दर कायम रखने के लिए वस्तुओं की कीमतें भी बढती हैं. लेकिन इस पूंजीवादी ढांचे के अन्दर भी यह सवाल तो उठना ही चाहिए की कौनसी चीज़ें महँगी हो रही हैं? जीवनावश्यक वस्तुओं के मुकाबले आराम की वस्तुएं महँगी हो तो हर्ज नहीं है. दूसरी बड़ी बात यह है की संघठन के मार्फ़त असंघठित लोकाविद्याधर समाज को महंगाई के मुकाबले अपनी आय बढाने की लगातार कोशिश करनी होगी. वरना महंगाई गरीबों को मारेगी और महंगाई घटाने को लिए गए सरकारी कदम भी उन्हें परेशानी में ही डालेंगे.

अमित बसोले

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