नयी सरकार बनने के बाद विकास के नाम पर गतिविधियाँ और भी तेज़ होती जा रही हैं. विदेशी पूँजी निवेश और श्रम कानून के "सुधार" से लेकर भूमि अधिग्रहण तक मोदी सरकार कई जन विरोधी कदम उठा चुकी है. लेकिन यह भी सच है कि विकास के मुद्दे पर लगभग सभी पार्टियां एकमत हैं, फिर वह कांग्रेस-भाजपा हों या सपा-बसपा. ऐसे माहौल में कारीगर समाज को चाहिए कि वह विकास की पूरी सोच को मौलिक चुनौती दे और वह सारे मुद्दे सार्वजनिक बेहेस में लाए जिन्हे बेहेस से बाहर किया जा चुका है.
उदहारण के तौर पर दो मुद्दे ले लीजिये: मशीनीकरण और बाज़ार. हस्तउद्योग का मशीनीकरण और बाजार का विस्तार ये दोनों विकास की आम परिभाषाएँ हैं. मगर यह दोनों ही केवल आर्थिक आयाम हैं जिनमे कोई सामाजिक मूल्य नहीं हैं. या यह कहिये कि पूंजीवादी व्यवस्था में मशीनीकरण और बाज़ार का विस्तार जान विरोधी रूप धारण करते हैं, बेरोज़गारी और विस्थापन की शकल में. कारीगर नज़रिये से सवाल मशीनीकरण बनाम हस्तशिल्प या बाज़ार के होने-न-होने का नहीं है. सवाल यह है की कारीगर समाज में और पूरे देश में अगर लोगों के अपने इल्म और ज्ञान के बल पर खुशहाली लानी है तो इस के लिए अर्थव्यवस्था किस प्रकार की होगी? फिर इसमें मशीन की कितनी भूमिका होगी और बाजार की कितनी यह सवाल दोयम दर्जे के हैं.
साडी उद्योग पर एक नज़र डालें तो यह साफ़ हो जायेगा की सवाल हथकरघा बनाम पावरलूम का नहीं है. आज पावरलूम के तेजी से फैल जाने से प्रोडक्शन तो बहुत बढ़ चूका है, लेकिन कारीगर की कमाई पर कोई अच्छा असर नहीं पड़ा है. अगर पहले हथकरघे पर एक दिन में एक मीटर कपडा बना कर डेड सौ रूपया मज़दूरी मिल रही थी, तो आज मशीन पर एक दिन में एक कारीगर दस गुना कपडा तैयार कर लेगा लेकिन दिन की कमाई वही डेड सौ रूपया रह जाएगी क्यूंकि मज़दुरी घट कर एक मीटर की १५ रुपये होगी. बिजली की परेशानी सो अलग. यानी कुल मिला कर कारीगर अपने को वहीँ का वहीँ पाता है. बनारस का कारीगर इस वस्तुस्तिथि को भलीभांति समझता है. लेकिन अपने आपको दोष देने की बजाये कारीगर को नीतियों को और उस ढांचे को चुनौती देनी होगी जिसके चलते "विकास" का उसे कोई फायदा नहीं होता।
इसी तरह नए नए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार उपलब्ध होने से कारीगर को मौजूदा अर्थव्यवस्था में कोई ख़ास फायदा नहीं पहुँचता। और अगर पहुँचता भी है तो सिर्फ चंद लोगों को. मोदी सरकार ने बड़ा लालपुर में बुनकरों के लिए ट्रेड फेसिलिटेशन केंद्र खोलने की घोषणा तो ज़रूर कर दी है क्यूंकि सरकार विकास चाहती है और विकास का मतलब है बाजार का विस्तार. लेकिन आज बाजार की रचना कारीगर के हित में है ही नही. तो इसके विस्तार से उन्हें क्या लाभ होगा? कपडे के बाजार की रचना पर नज़ार डालें तो यह दिखाई देता है की तेज़ी से बदलते फैशन के दौर में रोज़ नए डिजाइन आते हैं. और इससे जो रिस्क पैदा होता है वह कारीगर ही को झेलना पड़ता है. पूँजीपति प्रोडक्शन से जुडी जोखिम अपने कारीगर के कंधे पर डाल देते हैं. यानी डिजाइन चल पड़ी तो फायदा पूँजी वाले का और नहीं चली तो नुक्सान कारीगर का!
विकास के पक्षधर ये कहते नहीं थकते की हम भविष्य के बारे में सोचते हैं और देश को आगे बढ़ाना चाहते हैं. इनका विरोध हस्तशिल्प को "बचाने" की बात करके नहीं किया जा सकता। हमें भी आने वाले कल की ही बात करनी होगी. न कि परंपरा की या बीते हुए कल की. लेकिन हमारा कल बेरोज़गारी और विस्थापन वाला नहीं होग. कारीगर समाज को यह दावा पेश करना होगा की वह सबकी खुशहाली का रास्ता दिखला सकता है. अगर कारीगर समाज संघठित तरीके से विकास पर सार्वजनिक बेहेस चलाये तो मेक इन इण्डिया, विदेशी पूँजी आदि सब योजनाओं और नीतियों पर हो रही चर्चा को अर्थशास्त्रियों और अन्य पढ़े-लिखे लोगों की चंगुल से छुड़ा कर समाज के बीच ला सकता है. यह एक ऐसी बेहेस होगी जिसमे "विकास" "औद्योगीकरण" आदि को लेकर कोई पूर्वाग्रह नहीं होग. न मशीन बेहेस के दायरे से बहार होगा और न बज़ार.