Monday, November 26, 2007

कितने नंदीग्राम?

आज -कल समाचारों में नंदीग्राम कि घटनाओं कि चर्चा से कोइ नहीं बच सकता है। चारों तरफ, और हर द्रष्टि से, फिर वह मा. क. पा के समर्थन में हो या उसके विरोध में, नदिग्राम का विश्लेषण हो रहा है। और होना भी चाहिए। आर्थिक विकास के नाम पर आम आदमियों, और खास कर समाज के कमजोर तबकों का विस्थापन और उनके जीवन तथा सम्पत्ति कि बर्बादी, स्वतन्त्र भारत के इतिहास में कोइ नयी बात नहीं है। फिर वह बडे बाँध हों, या चौड़े highways "देश के हित" में कुछ लोगों को बलिदान देना ही पड़ता है। जवाहरलाल नेहरू ने हिराकुद बाँध से विस्थापित होने वाले किसानों से कहा था: "If you must suffer, suffer in the interests of your country।" यह बात तब, १९५३ में शायद ठीक भी लगी हो, अब इस रवैये का सार्वजनिक विमर्श में कोइ स्थान नहीं होना चाहिए। चिपको, नर्मदा, कलिंग नगर और ऐसे ने जाने कितने आंदोलनों के बाद एक चीज़ साफ हो गयी है। देश के किसी भी कोने में अगर सरकार या कोइ भी दूसरी शक्ति, किसी जगह के प्राक्रतिक संसाधनों के लिए (फिर वह जमीन हो चाहे पानी, चाहे जंगल या खनिज) उस जगह के मूल निवासियों को विश्तापित करने के बात करती है, तो उसे कम से कम पुनर्वसन कि बात करनी होगी। और कई बार इतना काफी न होगा। सरकार या निजी निगमों को स्थानीय समाज से ऎसी चुनौती मिल सकती है कि उसे पूरी योजना ही खारिज करनी पड़े। जैसा कि नंदीग्राम में हुआ, या फिर चिपको में हुआ था।

एक तरफ रहा जन आन्दोलनों कि राजनिति का सवाल। इस मामले में तो नंदीग्राम ने दिखा दिया कि अगर आप आर्थिक विकास के नाम पर विस्थापन कि बात करते हैं तो आप को यह ध्यान में रखना होगा कि स्थानीय समाज कि इच्छा के खिलाफ ऐसा करना मुमकिन ही ना हो। लेकिन नंदीग्राम ने एक और पहलु को भी उजागर किया है। पूंजीवाद की प्राकृतिक संसाधनों की भूक अब किसी से छुपी नहीं है। विश्व स्तर पर मौसम में आने वाले बदलाव, हर तरफ पर्यावरण सुरक्षा के नारे, प्रदूषित जल, उजड़े जंगल, कैंसर के बढते cases , कौन नकार सकता है? नंदीग्राम ने यह भी दिखा दिया है कि अगर भारत को अमेरिका-यूरोप के मॉडल पर आधुनिक औद्योगिक विकास करना है तो उसे अपने प्रकृति कि वैसी ही लूट करनी होगी जैसे यूरोप ने उपनिवेशवाद के दौर में सारे दुनिया कि की थी। बहस अब इस पर हो सकती है की क्या संसाधनों को प्राप्त करने का तरीका लोकतंत्र के सिधंतों की कद्र करता है या नहीं करता।

लेकिन क्या बहस को यहाँ तक सीमित रखना जायज़ होगा? क्या यह अकलमंदी होगी? मुझे ऐसा नहीं लगता। अनगिनत छोटे और बडे जन आन्दोलनों के ज़रिये हम इस औद्योगिक सभ्यता (अगर इसको सभ्यता कहा जा सके) को एक मौलिक चुनौती दे सकते हैं। वह ज़माना और था जब यूरोप के देशों ने तमाम दुनिया के शोषण पर अपनी सभ्यता खडी कर दी थी। यह ज़माना और है। भारत और चीन इस मामले में यूरोप की पैरवी नहीं कर सकते हैं। इन देशों की जनता ऐसा नहीं होने देगी। फिर सवाल यह उठेगा की अगर यूरोप की पैरवी संभव नहीं है (पर्यावरण की दृष्टि से और लोकतंत्र की दृष्टि से भी) तो आर्थिक विकास किस किस्म का होना चाहिय?

इस विषय पर अगली बार बात होगी।



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